15 वीं शताब्दी का राजनीतिक और सांस्कृतिक द्रष्टि से अस्थिरता का काल रहा। यह दैवी तथा आसुरी सम्पदाओं के टकराहट का युग था। विभिन्न धर्मों, सम्प्रदाओं, मत-मतान्तरों तथा उपासना प्रणालियों के लोग सत्य से कोसों दूर चले गये थे। भेदभाव एवं विषमताओं से परिपूर्ण थे। विधर्मी शासन ने पूरे देश को जकड़ लिया था, सामान्य जनता त्रस्त हो उठी थी। आवश्यकता थी, जो देश की आध्यातिमक एवं भौतिक जगत की डूबती नैया को पार लगा सके। ऐसी विषम परस्थितियों में जगतगुरु श्रीचन्द्रदेव जी का प्रादुर्भाव भाद्रपद शुक्ल नवमी संवत 1551 को लाहौर की खड़गपुर तहसील के तलवंडी नामक स्थान में श्रीगुरु नानकदेव जी की पत्नी सुलक्षणा देवी के घर हुआ था। आप निवृत्ति प्रधान सनातन धर्म के पुनरुद्धार के लिये अवतरित हुये थे। जन्म से ही सिर पर जटाएं, शरीर पर भस्म तथा दाहिने कान में कुंडल शोभित था। आप के भस्म विभूषित विग्रह को देखकर दर्शनार्थी अपर शिव मानकर श्रद्धा संवलित हो उठते थे।