उदासीन सम्प्रदाय के चारों धूनों और पाँचों बख्शीशों ;मींहा साहेब जी, भगत भगवान जी, दीवाना जी, अजीतमल्ल सोढ़ी जी, बख्तमल जीद्ध एवं दस उप बख्शीशों के उदासीन महात्माओं ने सम्पूर्ण भारत में धर्म और संस्कृति के प्रचार केन्द्रों की स्थापना की। लोककल्याणार्थ पाठशालाओं, चिकित्सालयों, मंदिरों एवं धर्मशालाओं का भी निर्माण किया। इसी परम्परा में गणमान्य संत निर्वाण प्रियतमदास जी हुये, जिनका उदासीन समाज को अपूर्व योगदान है। वह नर देह में अलौकिक शकितयों के भंडार थे। उनका जन्म आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा संवत 1777 को अंकोला जिले के अमरावती स्थान पर सुसंस्Ïत ब्राह्राण परिवार में हुआ। आपने बाल्यावस्था में ही उदासीन भेष की दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात सामाजिक र्दुव्यवस्था एवं वैचारिक विषमताओं को
योगीराज बाबा बनखण्डी साहेब जी महाराज धूनीवन नेपाल
देखकर इसे सुसंगठित करने का संकल्प लिया, आपको किसी मार्गदृष्टा की आवश्यकता महसूस हुर्इ। जिसकी तलाश की आकांक्षा में परिभ्रमण करते हुए, हिमालय की गोद में सिथत नेपाल जा पहुँचे। बाबा वनखंडी साहब जी, जो नेपाल की तरार्इ में सिथत मोरंग की झाड़ी में रहा करते थे। जिनकी तपस्या रूपी तेजपुंज के प्रभाव से वन्य हिंसक-अहिंसक पशु-पक्षी एक साथ विचरण, भ्रमण एवं विश्राम करते थे। वृक्ष अपने सुस्वादु फलों से अतिथि सत्कार में सदा-सर्वदा तत्पर रहा करते थे। जिनकी धूनी के लिए हाथी लकड़ी तोड़कर प्रज्जवलित रखते थे। ऐसे महापुरुष, योगीराज जी से श्री निर्वाणदेव जी प्रभावित ही नहीं बलिक तन-मन से दर्शन के लिये उधत हो उठे। श्री निर्वाणदेव जी की प्रेम भकित एवं निश्चल श्रद्धा को जानकर एवं उनके विश्वास की दृढ़ परीक्षा लेकर वनखण्डी साहेब जी महाराज ने उनको दर्शन दिया, साथ ही उन्होनें उस पवित्र धूनी से भभूति का गोला भी प्रदान किया, जिसकी पूजा आज भी अखाड़ों में गोला साहिब भस्म शिवलिंग के रूप में होती है। इस प्रकार निर्वाणदेव जी बाबा वनखण्डी साहब जी से भभूतिमय गोला साहेब भस्म शिवलिंग रूपी आशीर्वाद प्राप्त कर सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा करते हुये मूसा नदी के पावन तट पर तपस्या करने लगे। यह स्थान दक्षिण भारत के हैदराबाद, निज़ाम में सिथत है। यहाँ तप करते हुए अखाड़े के निर्माण की प्रेरणा प्राप्त हुर्इ। यह तपस्थली आज भी निर्वाणथड़ा ''श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन नाम से श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। अपने इस शिव संकल्प को साकार करने के उददेश्य से निर्वाणदेव जी ने हरिद्वार कुम्भ मेले के शुभ अवसर पर समस्त उदासीन भेष केा एकत्रित किया और विक्रम संवत 1825 माघ शुक्ल पंचमी को गंगा तट राजघाट, कनखल में श्री पंचायती अखाड़ा उदासीन की स्थापना की। श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन निर्वाण का गठन करते समय उदासीन सम्प्रदाय के समस्त संत, महन्त एवं मण्डलेश्वरों द्वारा यह शपथ ग्रहण किया गया कि यह हमारी सर्वोच्च संस्था होगी जिसके प्रति हम सभी श्रद्धा एवं समर्पण भाव रखेंगे। जो हमारे मध्य उत्पन्न वाद-विवादों एवं विषमताओं का निपटारा करते हुए सामाजिक मर्यादाओं को बनाये रखने में न्यायालय का काम करेगी। जहां एक ओर यह संस्था समस्त उदासीन समाज की होगी वहीं दूसरी ओर समस्त निर्वाण उदासीन संतों-महन्तों का परम कर्तव्य होगा कि वे इसके प्रति समग्र रूप से समर्पित हों और इसके नियमों का सप्रेम पालन करें।
निष्कर्षत:-आचार्य श्रीचन्द्रदेव जी के बाद उदासीन सम्प्रदाय को निर्वाणजी ने कार्य करने की शकित, प्रगति, साहस तथा व्यवस्था प्रदान की। जिसके फलस्वरूप अखाड़ा साहितियक, धार्मिक जनसेवा के कार्यो में मुक्त हस्त से सहयोग देता रहा है। यहीं तक नहीं, राष्ट्रीय संकट के समय प्रान्तीय एवं केन्द्र सरकारों को भी सहायता राशि प्रदान करता रहा है।