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भगवान आचार्य श्री श्रीचन्द्र जी द्धारा संरक्षित श्री उदासीन सम्प्रदाय का संक्षिप्त परिचय

पौराणिक विचारधारा की अपनी आस्था एवं विश्वास है कि उस जगतसृष्टा ब्रह्मा के इच्छानुसार यह संसार उत्पत्ति एवं प्रलय की दशा को प्राप्त होता रहता है। उसी कालक्रम में जब यह सारा भूमण्डल जलमग्न था, भगवान विष्णु शेषशैय्या पर आसीन थे, उनकी नाभिकमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुर्इ और उन विधाता ब्रह्मा ने 'एको·हम बहुस्याम का संकल्प किया, जिससे मानसिक सृषिट की रचना हुर्इ। सर्वप्रथम सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमार उत्पन्न हुए। उन्होनें आजीवन ब्रह्राचर्यपूर्वक, त्यागनिष्ठायुक्त, तपश्चर्यापूर्वक जीवन व्यतीत करने का दृढ़ संकल्प लिया जो आज भी अजर-अमर बाल्यस्वरूप में सिथत, मया प्रपंच से मुक्त, ब्रह्रा का चिन्तन करते हुए उदासीन रूप में परिभ्रमण कर रहे हैं। इन्हीं चारों मनीषियों से उदासीन साधुओं की परम्परा विकसित हुर्इ।

 

 उदासीन का शाबिदक अर्थ है उत् + आसीन = उत् = ऊँचा उठा हुआ अर्थात ब्रह्रा में आसीन = स्थित , समाधिस्थ।

 

अर्थात जो सांसारिक विषय वासनाओं से रहित होकर ब्रह्रा के चिन्तन में सदैव ध्यानमग्न, त्याग एवं तपस्या से युक्त जीवनयापन करता है तथा ब्रह्रानिष्ठ है वह उदासीन है। मध्यकाल में सरस्वती की धारा के समान क्षीण होती हुर्इ उदासीन परम्परा को श्री अविनाशी मुनि ने पुर्नजीवन दिया तथा भगवान आचार्य श्री श्रीचन्द्र ने उसे अखण्डता प्रदान की।